मीरां जैसी प्रेम दीवानी: आण्डाल

Ajay Singh Rawat/ January 4, 2021
Andal

नित्याभूषा निगमशिरसां निस्समोत्तुङ्गवार्ता,
कान्तो यस्याः कचलुलितैःकामुको माल्यरत्नैः।
सूक्त्या यस्याः श्रुतिसुभगया सुप्रभाता धरित्री,
सैषा देवी सकलजननी सिञ्चतां मामपाङ्गैः ॥१॥
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श्रीकृष्‍ण ने गीता में कहा है, “मासानां मार्गशीर्षोऽहम्।” दक्ष‍िण भारत में मारगड़ी का महीना कला और भक्‍त‍ि में सरोबार होने का अनूठा अवसर प्रदान करता है और इसका श्रेय जाता है आण्डाल को। मारगड़ी के माह में चैन्‍नै शास्‍त्रीय नृत्‍य और संगीत के वार्षिक उत्‍सव की तैयार‍ियों में लग जाता है। यह अब सैकड़ों पर्यटकों और कलाप्रेम‍ियों के आर्कषण का केंद्र बन चुका है। यह अवसर आण्डाल को स्‍मरण कर उत्‍सव मनाने का है। वर्ष-प्रत‍िवर्ष श्रीविल्‍लीपुत्‍तूर में आयोजित कई समारोहों में आण्डाल की वि‍रासत का स्‍मरण क‍िया जाता है।
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भक्ति आंदोलन की दीर्घ भारतीय परंपरा में आण्डाल पहली कवय‍ित्र‍ियों में से हैं। दूसरी कई स्‍त्री संत जैसे राजस्‍थान की मीराबाई, कर्नाटक की अक्‍का महादेवी, महाराष्‍ट्र की जनाबाई और सक्‍कूबाई, कश्‍मीर की लाल डेड और रूपा भवानी में भक्ति की ऐसी ही अनुगूंज सुनायी देती है। मीरां और राधा की तरह आण्डाल ने स्‍त्रियों से समाज द्वारा अपेक्ष‍ित संकोच और संयम की परवाह क‍िए ब‍िना ईश्‍वर को चाहा। उनकी चाह को पर‍िभाष‍ित करने के ल‍िए सामान्‍यत: “वधू रहस्‍यवाद” शब्‍द का प्रयोग क‍िया जाता है।

आण्डाल को समर्प‍ित एक संस्‍कृत तन‍ियन:
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नीळातुंगस्तनगिरितटी सुप्तमुद्बोध्य कृष्णम्
पारार्थ्यम् स्वम् श्रुतिशतशिरस्सिद्धमध्‍यापयन्ती ।
स्वोच्‍छ‍िष्‍टायाम् स्रजि‍निगळितम् या बलात्कृत्य भुङ्ते
गोदा तस्यै नम इदं इदं भूय एवास्तु भूयः॥
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आण्डाल श्रीविल्‍लीपुत्‍तूर के तुलसी उद्यान में अपने पालक प‍िता को नवजात श‍िशु के रूप में म‍िली थी। बड़ी होने पर उन्‍हें वि‍ष्‍णु से प्रेम हो गया। उनके बारे में कई क‍िंवद‍ंत‍ियां भी प्रचल‍ित हैं। जैसे आण्डाल गोदावरी नदी का अवतार थी। सीताहरण के बाद ब‍िछोह में तड़पते राम को जब इस दुर्घटना की साक्षी रही गोदावरी नदी से कोई जानकारी नहीं म‍िली तो उन्‍होंने उसे पृथ्‍वी पर जन्‍म लेने का शाप दे द‍िया। उनके नाम “कोदै” को “गोदावरी” का ही संक्ष‍िप्‍त रूप माना गया है।
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किंवदंत‍ियों में क‍िसी के भी जीवन में नाटकीय पर‍िवर्तन का कारण किसी का वरदान या शाप होने से सारे तर्क धराशायी हो जाते है और संशय का स्‍थान श्रद्धापूर्ण व‍िश्‍वास ले लेता है।
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स्‍वोच्‍छ‍िष्‍टमाल‍िका गन्‍ध बन्‍धुर ज‍िष्‍णवे।
व‍िष्‍णुच‍ित्‍ततनुजायै गोदायै न‍ित्‍य मंगलम।।
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कई संतो और व‍िद्वानों जैसे मालाकारार, कुरूम्‍बरत्‍त नम्‍ब‍ि, पेरियाड़वर, तोंडराडि‍प्‍पोडी आड़वर और आनन्‍दाड़वर ने भगवान के ल‍िए पुष्‍पकैंकर्य क‍िया किंतु आण्डाल का ढंग न‍िराला था। वे व‍िष्‍णु के ल‍िए मालाएं भेजने से पहले उन्‍हें स्‍वयं पहनकर देखती थीं। जब प‍िता को यह ज्ञात हुआ तो वे कुप‍ित हुए और उन्‍होंने आण्डाल की मालाएं अस्‍वीकार कर दीं। राम को अपने जूठे बेर ख‍िलाने में जैसी शबरी की भावना थी वैसी ही आण्डाल की भी थी। फ‍िर भला भगवान कैसे रूठते ? उन्‍होंने स्‍वयं प‍िता के स्‍वप्‍न में आकर आण्डाल की पहनी हुई मालाओं की मांग की। पुत्री की भक्‍ति और ईश्‍वर के आदेश के सामने प‍िता को झुकना पड़ा।
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श्रीव‍िल्‍लीपुत्‍तूर में आज भी आण्डाल की पहनी मालाएं त‍िरूपत‍ि के ब्रह्मोत्‍सवम् में वैंकटेश्‍वर मंद‍िर में भेजी जाती हैं। गरूड़ सेवा यात्रा में वैंकटेश्‍वर भगवान इन्‍हें पहनते हैं। आण्डाल की मालाएं च‍ित्‍तरै उत्‍सव में मदुरै के कल्‍लड़गर मंद‍िर में भी भेजी जाती हैं।
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“अमुक्‍तमाल्‍यदा” अर्थात् जो पहनकर मालाएं देती है, इस नाम से व‍िजयनगर शासक कृष्‍णदेवराय ने आण्डाल पर तेलु्गु में एक प्रस‍िद्ध महाकाव्‍य भी ल‍िखा है। इसमें आण्डाल को लक्ष्‍मी का अवतार बताते हुए उनकी व‍िरह वेदना को च‍ित्र‍ित क‍िया है। इसमें केशाद‍िपादम में ल‍िखे तीस पद भी हैं जो आण्डाल के नख-श‍िखांत सौंदर्य का वर्णन करते हैं।
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व‍िष्‍णु से आण्डाल के व‍िवाह की कई कहावतें प्रचल‍ित हैं। ऐसा माना जाता है क‍ि उन्‍हें नववधू के वेश में श्रीरंगम ले जाया गया जहां वे व‍िष्‍णु की प्रत‍िमा में अंर्तलीन हो गयी।

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श्रीरंगम की च‍ित्रवीथ‍ी के अंत में उस छोटे से घर को आज भी देख सकते हैं जहां वे एक रात के ल‍िए रुकी थीं। श्रीव‍िल्‍लीपुत्‍तूर में उनके घर को सुरक्ष‍ित रखा गया है। वह कुआं जि‍सके जल के प्रत‍िब‍िंब में उन्‍होंने सजकर स्‍वयं को न‍िहारा था आज भी वहां हैं। श्रीव‍िल्‍लीपुत्‍तूर के मंद‍िर की दीवारों पर रंगनाथ की प्रणयपत्र‍िका का एक अभिलेख भी है जो आण्डाल के पदों के अंशों कों उद्धृत करता है।
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श्रीव‍िल्‍लीपुत्‍तूर राजगोपुरम कई वर्षों तक एश‍िया का सबसे ऊंचा गोपुरम रहा और तम‍िळनाड की राजकीय मुद्रा में भी यह सुशोभित हुआ।
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आण्डाल की दो प्रमुख कृतियां हैं: त‍िरूप्‍पवै और नाच‍ियार त‍िरूमोड़ी। त‍िरूप्‍पवै ईश्‍वर के प्रत‍ि पूर्ण समर्पण की रचना है तो नाच‍ियार त‍िरूमोड़ी ईश्‍वर के साथ एकाकार होने की उत्‍कंठा की उन्‍मुक्‍त अभ‍िव्‍यक्‍त‍ि है।
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लगभग तेरह वर्ष की आयु में आण्डाल ने त‍िरुप्‍पवै (कृष्‍ण का मार्ग) की रचना की। यह कुमार‍ियों द्वारा अच्‍छा वर पाने के ल‍िए की गयी शपथों का संगीतमय भक्‍त‍िमय वर्णन है। इसमें सामूह‍िक पूजा के गीत हैं। अपनी दूसरी और अंत‍िम कृत‍ि नाच‍ियार त‍िरुमोड़ी (युवती के पव‍ित्र गीत) में आण्डाल ईश्‍वर के साथ अपने आध्‍यात्‍म‍िक और भौतिक समागम और स्‍त्री की उत्‍कट क‍िंतु पव‍ित्र अभ‍िलाषा के गीत गाती है।
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तम‍िल वैष्‍णवों द्वारा नाच‍ियार त‍िरुमोड़ी और त‍िरुप्‍पवै को प्रत्‍यक्ष यौन अभ‍िव्‍यक्ति के बावजूद चार हजार द‍िव्‍य प्रबंधनों में सम्‍म‍िल‍ित कर संस्‍कृत वेदों के समतुल्‍य माना गया है। माना जाता है कि आण्डाल ने मारगड़ी के महीने में प्रत‍िद‍िन एक पद की रचना की थी। इसी परंपरा का न‍िर्वाह करते हुए दक्ष‍िण भारत के वैष्‍णव मंद‍िरों में प्रत‍िदिन एक कव‍िता का पाठ क‍िया जाता है। इस प्रकार माह के अंत तक य‍ह पुस्‍तक संपूर्ण हो जाती है।
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आण्डाल के कृत‍ित्‍व से भक्‍त और कलाकार दोनों प्रेरणा लेते रहे हैं। कर्नाटक संगीत के कई शास्‍त्रीय गायकों ने त‍िरुप्‍पवै को अपना स्‍वर द‍िया है जिनमें एम.एल. वसंतकुमारी के संस्‍करण ने खूब लोकप्र‍ियता बटोरी। सुप्रस‍िद्ध अभिनेत्री वैजयंती माला ने भी आण्डाल की कृत‍ियों पर नृत्‍य प्रस्‍तुत‍ियां दी। आण्डाल के वि‍ष्‍णु में अंर्तभूत होने की उनकी एक प्रस्‍तुति से तो दर्शक भावव‍िभोर हो उठे और उनके लि‍ए यह एक च‍िरस्‍मरणीय अनुभव बन गया। आण्डाल के वेश में वैजयंती माला का चित्र त‍िरुप्‍पवै की एक लघु पुस्‍तक के आवरण में लंबे समय प्रकाश‍ित होता रहा। उनके बाद दूसरी नृत्‍यांगनाओं ने भी आण्डाल की कविताओं पर नृत्‍य कि‍या।
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आण्डाल का स्‍वरूप
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आण्डाल का केश व‍िन्‍यास,“आण्डाल कोण्डै” केरल के नम्‍बूद‍िरी पुरोह‍ितों जैसा है ज‍िसमें स‍िर के आगे की ओर एक जूड़ा बनाया जाता है। व‍िवाह के समय तम‍िल ब्राहमण आयंगर वधुओं की केशसज्‍जा आण्डाल से ही प्रेर‍ित होती है।
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आण्डाल के गले में तुलसी, सेवन्‍ती (गेंदे) और सम्‍पांगी (सोनचम्‍पा) के फूलों से बनी बड़ी क‍िंतु खुली हुई माला होती है।
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मंद‍िर में आण्डाल का तोता हस्‍तन‍िर्मित होता है ज‍िसे प्रत‍िद‍िन ताजी हरी पत्‍त‍ियों से बनाया जाता है। इसे बनाने में ही साढे़ चार घंटे लग जाते हैं। इसकी चोंच के ल‍िए अनार केे पुष्‍प, पैरों के ल‍िए बांस, केले का पौधेे और गुलाबी कनेर का प्रयोग होता है।

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इत‍िहास या म‍िथक को वर्तमान की लोकप्र‍िय उदार वि‍चारधाराओं के परि‍प्रेेक्ष्‍य में देखना बुद्धिजीवि‍यों को बड़ा सुहाता है। इसल‍िए अपने कृतित्‍व की स्‍त्रीवादी समीक्षा से आण्डाल भी नहीं बच पाई हैं। प्रेम के एंद्र‍िय चित्रण का साहस द‍िखाने और सांसार‍िक व‍िवाह की अन‍िवार्यता को अस्‍वीकार करने से स्‍त्रीवादी आण्डाल को पितृसत्‍ता को चुन‍ौत‍ी देने वाले सशक्‍त व्‍यक्‍त‍ित्‍व के रूप में देखते हैं।
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संगीतकार इलैयाराजा को स‍ितारा हैस‍ियत दिलाने वाले 1976 के सफल चलच‍ित्र “अन्‍नकिल‍ि” में भी आण्डाल के व्‍यक्‍त‍ित्‍व की छाया थी। तम‍िळ कव‍ि गीतकार कण्‍णदासन के मन में आण्डाल के व्‍यक्‍त‍ित्‍व और कृत‍ित्‍व के ल‍िए बड़ी श्रद्धा थी जो “त‍िरूमाल पेरूमै” चलच‍ित्र के ल‍िए ल‍िखे उनके गीतों में साफ झलकती है। वे अपने भाषणों, गद्य रचनाओं और अपने कई गीतों में इस श्रद्धा को अभि‍व्‍यक्‍त करते रहे।
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तम‍िळ के प्रस‍िद्ध गीतकार वैरमुतु ने एक बार आण्डाल को “देवदासी” कहकर संबोध‍ित क‍िया था। उनका अभ‍िधेय “देवता की दासी” था जो क‍ि इस संस्‍कृत शब्‍द का वास्‍त‍िवक अर्थ भी है। क‍िंतु अंग्रेजी और तम‍िळ सामाचारों ने अज्ञानवश इसकी व्‍यंजना गण‍िका के अर्थ में की और आण्डाल चर्चा में आ गयीं। राजनीत‍िक औच‍ित्‍य के इस युग में कब अर्थ का अनर्थ हो जाए और कब व‍िवाद की ब‍िजली कि‍सी पर गिर जाए कहना कठिन है। स्मरण रखने योग्‍य तो यही बात है क‍ि आण्डाल और वैरमुतु दोनों ही तम‍िल साह‍ित्‍य की कालजयी प्रत‍िभाएं है।
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पश्चलेख: तम‍िळ के वर्ण ழ के ल‍िए अंग्रेजी में “zh” और ह‍िन्‍दी में ळ, झ, ष, अथवा ऱ का प्रयोग क‍िया जाता है। वस्‍तुत: इसके उच्‍चारण के साथ पूरा न्‍याय इनमें से कोई भी नहीं कर पाता है। तम‍िळनाड (जी हां तम‍िळनाड! क‍िंतु इसकी चर्चा फ‍िर कभी) में रहते हुए तम‍िळ सीखते-बोलते समय मैंने इस ध्‍वन‍ि को क्ष‍िप्र क‍िंतु स्‍न‍िग्‍ध “ड़” जैसा पाया। अत: स्‍वरच‍ित लेख में मैंने इसे वैसा ही ल‍िखने की स्‍वतंत्रता ली है। जैसा क‍ि वैरमुतु ने चलच‍ित्र “पुद‍िय मुगम्” के एक गीत में कहा है “तम‍िळक्‍क ழ अळग” अर्थात् तम‍िळ का ழ सुंदर है, मेरा भी यही मानना है क‍ि यह सुंदर है क‍िंतु अलबेला भी।

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