मलयालम की मेरी एकलव्‍य साधना

Ajay Singh Rawat/ July 9, 2023

प्रारंभ में ही स्‍पष्‍ट करना चाहूंगा क‍ि शीर्षक में उल्‍ल‍िख‍ित एकलव्‍य की प्रत‍िभा और न‍िष्‍ठा से मेरा कोई सादृश्‍य नहीं है। क‍िंतु गुरू का अभाव एकमात्र कारण है जो मुझे एकलव्‍य और अपने ल‍िए एक सा जान पड़ता है। लगभग एक दशक पूर्व तम‍िळ सीखने की मेरी इच्‍छा मुझे मलयालम सीखने की ओर ले गयी और तब से अब तक मैं इसे सीखने का प्रयास ही कर रहा हूं। इस प्रक्र‍िया में संस्‍कृत का छात्र होने का लाभ मुझे अवश्‍य म‍िला है। मलयालम क‍िंच‍ित समझ लेता हूं और क‍िंच‍ित पढ़ भी लेता हूं अतएव मलयालम साक्षर होने का अनौपचारि‍क प्रमाणपत्र मैं स्‍वयं को कभी का दे चुका हूं।

मलयाली आणो अल्‍ल ञान वडक्‍कन तन्‍ने पक्षे एन‍िक्‍क कुर्च मलयालम अर‍ियाम एंगने ञान कोयम्‍बत्‍तूर‍िल तामस‍िक्‍कुम्‍बोळ मलयालम पठ‍िच्‍चु। अंगनेयो अद् कोल्‍लालो। कुछ इसी तरह का होता है मेरा पहला वार्तालाप क‍िसी अपर‍िच‍ित मलयाली से।
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मलयालम कवि वल्लतोल (1878-1958) अपनी भाषा के सौंदर्य का चित्र खींचते हैं, ‘मेरी भाषा में कई चीजें घुली-मिली हैं- समुद्र की गहराई, सह्याद्रि की पहाड़ी दृढ़ता, गोकर्ण मंदिर की प्रफुल्लता, कन्याकुमारी का आनंद, गंगा और पेरियार नदियों की शुद्धता, कच्चे नारियल पानी का मीठापन, चंदन की शीतलता, इलाइची-लवंग की महक, संस्कृत का स्वाभाविक ओज और ठेठ द्रविड़ का सौंदर्य!’

मेरी कल्‍पना में मलयालम राजारव‍िवर्मा के च‍ित्र सदृश, सघन सुदीर्घ केशराश‍ि वाली, सुनहले छोर वाली धवल साड़ी धारण क‍िए, दीपस्‍तंभ उठाए कोई गौरांगी या श्‍यामांगी सी है ।

वर्तमान भारतीय भाषाओं में मलयालम मुझे संस्‍कृत के न‍िकटतम जान पड़ती है। आज ही यूट्यूब पर वयलार रच‍ित एक पुराना गाना सुना जो जैसे इस बात की पुष्‍टि‍ करने के ल‍िए ही रचा गया था।

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कोयम्‍बत्‍तूर में रहते हुए केरला घूमने का लोभ संवरण करना कठ‍िन ही है। इसल‍िए मैंने भी केरल घूमने का स‍िलस‍िला शुरु कर द‍िया। शुरुआती सैर सैपाटे में ही मैं समझ गया क‍ि भाषायी न‍िष्‍ठा और उत्‍तर भारतीयों के प्रत‍ि पूर्वग्रह के कारण केरला में बतौर एकल यात्री ह‍िन्‍दी ही नहीं अंगरेज़ी से भी काम चलाना जरा कठ‍िन है। यह बात अलग है क‍ि अध‍िकतर मलयाली ह‍िन्‍दी और अंगरेजी दोनों ही अच्‍छे से जानते हैं।
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कोय‍िकोड़ या कैल‍िकट मैं कई बार गया और वहां के रेलवे प्‍लेटफार्म पर दीवार पर बने एक श्‍यामपट्ट पर मेरी नजर हमेशा ठ‍िठक जाया करती थी। उस पर ल‍िखा था आज का ह‍िन्‍दी शब्‍द और यह मैंने ज‍ितनी बार भी देखा हमेशा खाली ही रहा। मैं दावा कर सकता हूं क‍ि आज भी वहां कुछ नहीं ल‍िखा होगा। हालांक‍ि मेरी ज‍िज्ञासा उस प्रेरणा के व‍िषय में है ज‍िसके चलते उसे वहां बनाया गया। ह‍िन्‍दी हम भारतीयों को एक सूत्र में बांधने वाली भाषा मान ली गयी थी कदाच‍ित्।
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काम चलाने भर के ल‍िए क‍िसी भाषा को सीख लेना मेरा वास्‍तव‍िक उद्देश्‍य कभी नहीं रहा। भाषा का छात्र होने के कारण क‍िसी भाषा के लुभावने सौंदर्य से पर‍िच‍ित होने की उत्‍कंठा मुझमें रहती है। सब्‍जीवाले से मोलभाव करना, गाड़ीवाले से अपने गंतव्‍य तक का क‍िराया पूछना, कहीं जाने का रास्‍ता पूछना या क‍िसी भृत्‍य से काम करवाना, ऐसी तात्‍काल‍िक आवश्‍यकताएं क‍िसी भाषा के प्रत‍ि उदासीन लोगों को भी उसमें न‍िपुण बना देती है। ऐसे लोगों से मुझे स‍िर्फ ईर्ष्‍या होती है, कोई प्रेरणा नहीं म‍िलती क्‍योंक‍ि उनका साध्‍य मेरा साध्य नहीं है। मलयालम सीख कर क्‍या करोगे का उत्‍तर यद‍ि मैं यह कहकर दूं क‍ि मैं कुमरन आशन की कव‍िता चाण्‍डाल भ‍िक्षुकी को क‍िसी मलयाली की भांत‍ि ही पढ़ना और समझना चाहता हूं तो यह क‍िसी व्‍यंग्य से कम नहीं लगेगा। ऐसी भाषायी महत्‍वाकांक्षा तो लगता है केरला या उत्‍तरभारत में दूसरा जन्‍म लेकर ही पूरी होने लायक है।
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आज से कई वर्ष पूर्व पुस्‍तकालय में जब तकड़ी श‍िवशंकर प‍िल्‍लई की कृत‍ि कयर और च‍िम्‍मीन तब अनुमान नहीं था क‍ि भव‍िष्‍य में कभी मलयालम सीखने का यत्‍न भी करूंगा। तब कई उत्‍तरभारतीयों की तरह मुझे भी तम‍िळ, मलयालम, कन्‍नड़ा, तेलुगु आद‍ि दक्ष‍िण भारतीय भाषाएं एक ही जान पड़ती थीं। तम‍िळनाड के प्रत‍िवेशी राज्‍य होने के कारण मलयालम और कई समानता है पर मलयालम में संस्कृत की सान्‍द्रता उसे तम‍िळ से पृथक भी कर देती है।
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मेरे अनुसार मलयालम को जो एक बात व‍िश‍िष्‍ट और क्‍ल‍िष्‍ट बनाती है वह है ञ का प्रयोग जो ह‍िन्‍दी मे लुप्‍तप्राय हो गया है या वर्णमाला स‍िखाने वालों की भाषा में कहें तो अण खाली । अण से हमारे पास कोई शब्‍द नहीं है क‍िंतु मलयालम में ञ बहुत अहम इय‍त रखता है क्‍योंक‍ि वहां मैं के ल‍िए ञान शब्‍द का प्रयोग होता है।

कोयंबटूर का मलयाली समाज स्कूल को अरद प्रोढशिक्षा केन्द्र कहना अतिशयोक्ति न होगी जहाँ, सप्ताहांत में मलयालम की सांध्यकालीन कक्षाएं आयोजित होती थीं बच्चे गृहिणियों युवा और वृद्ध छात्र थे। सिखाने वाले गुरुजी वर्षों से ये कक्षाएं संचालित कर रहे थे और विश्व कीर्तिमान बनाने की ओर अग्रसर थे। मलयाल‍ियों में अग्रगण्‍य बनने का लोभ संवरण न कर पाने की प्रवृत्‍त‍ि उल्‍लेखनीय है। कोई न कोई कीर्तिमान बनाने की महत्‍वाकांक्षा इसी का सह उत्‍पाद जान पड़ती है। कोई उपलब्ध‍ि प्राप्‍त हो भी जाए तो उसका श्रेय बतौर भारतीय के बजाय बतौर मलयाली पहले लेना उनके शेष देशवास‍ियों से श्रेष्‍ठतर होने की स्‍वपोष‍ित भावना को उजागर कर ही देता है। ऐसा लगता है कयी लोगों ने विश्वकीर्तिमानं की पुस्तक पढ़ने के बाद उन कामों की सूची बना ली है जिनका कीरतिमान नहीं बना और वे किसी एक काम को अपनी धुन बना लेते हैं। यशलिप्सा बुरी बात नहीं है यदि उससे किसी को कष्ट न पहुँचता हो पर कोरोना काल में एक मलायाली नर्स ने एक दिन में सबसे अधिक लोगों को सुई लगाने का जो रिकॉर्ड बनाने के बारे में सुनकर मेरी कल्पना में अपना हाथ या नितंब सहलाने वाले लोगों का चित्र उपस्थित हो ही जाता था जिन्हें नर्स साहिबा ने जल्दबाजी में सुई लगा दी क्योंकि उन्हें रिकॉर्ड बनाने की धुन सवार थी।

दूसरी भाषाओं के शब्‍द मलयालम में समाव‍िष्‍ट होकर ज‍िस रूपान्‍तरण से गुजरते हैं वह भी कम द‍िलचस्‍प नहीं है। एन्‍थनी नाम वाले व्‍यक्‍ति‍ को कोई मलयाली ही आण्‍टणी बुला सकता है।

मलयालम का जो थोड़ा बहुत ज्ञान मैंने अर्ज‍ित कर ल‍िया है उसने कम से कम मुझे मलयालम ब‍िलकुल न जानने वाले लोगों से तो बेहतर बना ही द‍िया है। एक बार कोच्च‍ि में मेरे ही होटल में रूके क‍िसी बंगाली सैलानी को क‍िसी मलयाली मह‍िला को हाय चेची कहते सुना तो मैं स्‍वयं को पूछने से न रोक सका आपको मलयालम आती है। उत्‍तर म‍िला नहीं । तो आपने उस मह‍िला को चेची क्‍यों कहा। क्‍यों उसका नाम चेची है। अपनी हंसी दबाते हुए जब मैंने कहा क‍ि मलयालम में चेची का अर्थ दीदी होता है तो उसका चेहरा देखने लायक था। मेरे कुछ सहपाठी और सहकर्मी मद्रासी नहीं मलयाली थे यह बात मुझे मलयालम सीखने के बाद ही समझ आई। खेद इस बात का है क‍ि अपनी मलयालम का अभ्‍यास करने के ल‍िए अब इनमें से कोई भी मेरे पास नहीं है।

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