“जिंगल बेल” से पहले सुनिए “मारगड़ी तिंगल…”

Ajay Singh Rawat/ December 31, 2024

दिसम्‍बर के उत्तरार्ध में जहां विश्‍वभर में क्रिसमस की तैयारियां परवान चढ़ने लगती हैं वहीं चेन्‍नै में एक निराला ही समा बंधने लगता है। अलसभोर में कपालीश्‍वर मंदिर की पुष्‍करिणी में उदीयमान सूर्य की रश्‍मियों के अवगाहन से पूर्व ही कदाचित् मैलापोर की मडा वीथियों में हारमोनियम की संगत पर भजन गूंजते सुनाई दें तो समझ जाइए मारगड़ी महोत्‍सव प्रारंभ हो चुका है।
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घरों के सम्‍मुख बने कोलम् (रंगोली) से सजी गलियों में कोई आण्‍डाल की तिरुप्‍पवै की पंक्‍तियां गाता चल रहा है तो कोई माणिक्‍कवासकर के तिरुवेम्‍पवै की पंक्‍तियां। भजन मण्‍डलियां मंदिर की परिक्रमा करते हुए तेप्‍पकुलम् (सरोवर) की ओर बढ़ती हैं। तमिळनाड के आस पास के क्षेत्रों में सदियों से चली आ रही वीथि भजन या नगर संकीर्तन की इस परम्‍परा को जीवंत रूप में देखने का यही शुभ अवसर है।
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तमिळनाड में मारगड़ी की धार्मिक महिमा पांचवीं से आठवीं शताब्‍दी से चली आ रही है। नायन्‍मार (शैव) और आळवार (वैष्‍णव) दोनों की मारगड़ी में आस्‍था थी। हालांकि इसे उत्‍सव के रूप में मनाने का आरंभ मद्रास संगीत अकादमी की स्‍थापना से हुआ। 1927 में स्‍वतंत्रता सेनानी व कांग्रेसी नेता एस सत्‍यमूर्ति ने कांग्रेस दल के सत्र के साथ ही एक संगीत सम्‍मेलन का भी आयोजन किया जिसके बाद यह सांस्‍कृतिक उत्‍सव मनाया जाने लगा। यह उत्‍सव दिसम्‍बर के मध्‍य से जनवरी के मध्‍य तक चलता है। इसका हिस्‍सा बनने के लिए विश्‍व के कोने कोने से कलाकार और कलानुरागी चेन्‍नै में एकत्रित होते हैं।
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कलाकारों के लिए मारगड़ी महोत्‍सव उनकी प्रतिभा का प्रदर्शन मात्र नहीं है अपितु कलात्‍मकता और आपसी जुड़ाव की एक परिवर्तनकारी यात्रा भी है। रागम्, तानम्, पल्‍लवी का सुरीला गायन, बांसुरी, गोटुवाद्यम्, नादस्‍वरम्, तविल, मृदंगम्, घटम् का कर्णप्रिय वादन, भरतनाट्यम्, कथकली, और मोहिनीअट्टम का मनोहारी नृत्‍य रसिकों को बरबस यहां खींच लाते हैं। कलामर्मज्ञ रसिकों से सान्निध्‍य से अल्‍पज्ञ रसिकों की सांगीतिक समझ भी निखरती है। जरा कल्‍पना कीजिए आप किसी मध्‍यम आयु की “मामी” के पास बैठे हैं जो गांगेय भूषणी जैसे रागों की जटिलता को अनायास ही पहचान लेती हैं या जो यह समझा सकती हैं कि वलचि में शुद्ध ऋषभ लगाने से वह मलयमारुतम् राग में परिवर्तित हो जाएगा ।

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टी एम कृष्‍णा के इन शब्‍दों में, मारगड़ी कला उत्‍सव के मोहक वातावरण की एक झांकी दिखाई देती है:
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जब विद्वान सेम्‍मनगुड़ी श्रीनिवास अय्यर ने पंचम स्‍वर पर परिभ्रमण करते हुए मौलौ गंगा श्‍लोक उच्चारित किया; जब विदुषी टी वृन्‍दा ने एमानतिच्चेवो गाया और प्रथम स्‍वर “एमान” लुभावने ढंग से ऋषभ पर टिक गये; जब विद्वान एम डी रामानाथन ने सामान्‍यतया सुनाई देने वाली गमकों से किनारा करते हुए पूरा सप्‍तक पार कर लिया; जब विदुषी सुब्‍बुलक्ष्‍मी की आलापना की प्रत्‍येक संगति आकाश के तारों की तरह जगमगा उठी; जब पालघाट मणि अय्यर ने ध्‍वनि की गति से परन वादन किया; जब पळनी सुब्रह्मण्‍य पिल्‍लै ने अपनी विशिष्‍ट कोरवै बजाई; जब एस बालाचन्‍दर ने वीणा के तारों को छेड़े बिना ही उन्‍हें झंकृत कर दिया और एक के बाद एक संगीत के मोती बिखेर दिए, और जब विद्वान वी नागराजन की थाप से कंजीरा (खंजड़ी) गरज उठा, तो वे स्‍वरसाधक रागों को आलिंगन में बांधे हमें उसके प्रभावक्षेत्र में आमंत्रित कर रहे थे। ।
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तमिळ संस्‍कृति में कर्नाटक संगीत उपासना का एक स्‍वरूप है। मारगड़ी के सभी तीस दिनों में मंदिरों व घरों में प्रात:काल कृष्‍ण भक्‍तिन आण्‍डाल रचित तिरुप्पवै के 30 पद एक एक करके गाए जाते हैं।
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तिरुप्‍पवै का प्रथम पद मारगड़ी उत्‍सव के मंगलाचरण की तरह सर्वत्र गूंजता है:
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मारगड़ीत्‍त‍िंगल मद‍ि न‍िरैन्‍द नन्‍नालाल
नीराडप्‍पोदुवीर पोदुम‍िनो नेर‍िड़ैयीर
सीर मलगुम आयप्‍पाडीच्‍चेल्‍वच्‍चि‍रूमीरगाल
कूरवेल कोडुन्‍दोड़‍िलान नन्‍दगोपन कुमरन्
एरान्‍द कण्‍णी यसोदै इलम स‍िंगम
कार मेनी सेनगन कद‍िर मद‍ियम पोल मुगत्‍तान
नारायणने नमक्‍के परै तरूवान
पारोर पुगड़ाप्‍पड‍िन्‍देलोर एम्‍पावाय ।।
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(अरी सुसज्‍ज‍ित कुमार‍ियों, यह मार्गशीर्ष की पूर्ण‍िमा का शुभ द‍िन है। जो यमुना में स्‍नान की इच्‍छुक हैं वे आ जाएं। व‍िशाल और समृद्ध गोकुल की सम्‍पन्‍न युवत‍ियों, नारायण भगवान हमें अवश्‍य ढोल देंगे। नन्‍दगोप का पुत्र और शत्रुओं का दमन करने वाला वह सदैव अपने हाथ में एक तीक्ष्‍ण भाला धारण क‍िए रहता है। वह लुभावने नेत्रों वाला यशोदा रानी का स‍िंहशावक है। उसका मुख काले मेघ सदृश द‍िव्‍य है, नयन कमल जैसे रक्‍ताभ हैं और उसका मुख सूर्य और चन्‍द्र की तरह दमकता रहता है। आओ हम उनके ल‍िए उपवास करके उनकी शरण में जाएं और यश अर्ज‍ित करें।)

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संध्‍या को लोग सभा द्वारा आयोजित निशुल्‍क संगीत समारोह जिन्‍हें कच्‍चेरी कहते हैं, वहां जाते हैं। कच्‍चेरी हिन्‍दी के शब्‍द कचहरी का ही भ्रष्‍ट रूप है किन्‍तु हिन्‍दी में कचहरी का अर्थ न्‍यायालय होता है। इसलिए कचहरी के चक्‍कर लगाने से एक दक्षिणभारतीय को आनंद मिलता है तो एक उत्तरभारतीय को दुख।
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चेन्‍नै को कर्नाटक संगीत का महातीर्थ कहा जाता है। हालांकि तमिळ को कर्नाटक संगीत में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। 1940 तक कर्नाटक शास्‍त्रीय गायक तमिळ को तेलुगु, संस्‍कृत और कन्‍नड़ा जितना सुरीला नहीं मानते थे क्‍योंकि इसके शब्‍दों के अंत में क् (க்), प् (ப்), च् (ச்) आते थे जो संगीत के लिए उपयुक्‍त नहीं था। संगीत समारोह में तमिळ गीत बहुत कम गाए जाते थे। संगीत पारिजातम् और गायक लोचनम् जैसी पुस्‍तकों में भी “चिल्‍लरै” अथवा “टुकड़ा” अर्थात् विविध शीर्षक के अन्तर्गत तमिळ गीतों का उल्‍लेख होता था। तिरुवल्‍लुवर, इलांगो अडिगल, और सुब्रह्मण्‍यम भारती जैसे कवियों की जन्‍मभूम‍ि रहे तमिळनाड के लिए यह किसी विडम्‍बना से कम नहीं था। तीसरी और छठी शताब्‍दी के बीच लिखे गए तमिळ महाकाव्‍य सिलप्‍पदिक्‍करम् में तमिळ संगीत की विस्‍तार से चर्चा की गई है।
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तमिळ को कर्नाटक शास्‍त्रीय गायन में उसका समान अधिकार दिलाने में 1939 में हुए तमिळ इसै संगम की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। एम एस सुब्‍बुलक्ष्‍मी इस आंदोलन की सबसे सशक्‍त आवाज थी। कर्नाटक संगीत में तमिळ गीतों के समावेश को ब्राह्मणों के प्रभुत्‍व को चुनौती देने के रूप में भी देखा जाता है।

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मारगड़ी महोत्‍सव में आगन्‍तुक कर्णप्रिय और नयनाभिराम कला प्रस्‍तुतियों का ही आनंद नहीं लेते बल्‍कि आयोजक सभा से जुड़ी कैन्‍टीन के स्‍वादु व्‍यंजनों का भी रसास्‍वादन करते हैं। क्षीर अन्‍नम्, अक्‍करवडिसल, मोर कली, रसवंगी, मोर कूट, सेन्‍नै सोधी जैसे पारम्‍परिक और दुर्लभ व्‍यंजन चखने का अवसर यहीं मिलता है।
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टिप्‍पणी:
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विद्वान सेम्‍मनगुड़ी श्रीनिवास अय्यर का गाया श्‍लोक अप्‍पय दीक्षित द्वारा रचित है
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मौलौ गंगाशशांकौ करचरणतले शीतलांगा: भुजंगा:।
वामे भागे दयार्द्रा हिमगिरितनया चन्‍दनम् सर्वगात्रे।।
इत्‍थं शीतम् प्रभूतम् तव कनकसभा नाथ सोढुं क्‍व शक्‍ति:।
चित्ते निर्वेद तप्‍ते यदि भवति न ते नित्‍य वासो मदीये।।
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आपकी जटाओं में गंगा और चन्‍द्रमा है, हाथ और पैरों में ठंडे सर्प लिपटे हैं
आपके बायीं ओर हिमालय की दयावती पुत्री है, आपके पूरे शरीर में चन्‍दन लगा है
हे कनकसभा नाथ आप भला इतनी ठंड कैसे सह लेते हैं।
यदि आपके लिए यह शीतलता असह्य है तो कृपया मेरे हृदय में रहिए
जो अनेक इच्‍छाओं से सदैव संतप्‍त रहता है।
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भगवान शिव ने तमिळनाड में पांच स्‍थानों पर तांडव किया था। ये स्‍थान सभा कहलाते हैं। ये पांच सभाएं हैं:
1. कनक सभा – चिदम्‍बरम् – आनंद तांडवम्
2. रजत सभा – मदुरै – संध्‍या तांडवम्
3. रत्‍न सभा – तिरुवालनगाड – उर्ध्‍व तांडवम्
4. ताम्र सभा – तिरुनेलवेली – तिरु तांडवम्
5. चित्र सभा – कुट्रालम – त्रिपुर तांडवम्