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कांजीवरम की रेशमी साड़ी देवताओं की भी प्रिय रही है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋषि मार्कंडेय देवताओं के प्रधान बुनकर थे। वह कमल के रेशे से भी वस्त्र बुन सकते थे। उन्हें कांजीवरम बुनकरों का पूर्वज माना जाता है।
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एक बार भगवान शिव ने मार्कण्डेय ऋषि से संसार के लोगों की नग्नता को ढकने के लिए एक यज्ञ का आयोजन करने को कहा। इस यज्ञ से भवनारायण का जन्म हुआ जिसे मार्कण्डेय ऋषि ने अपना पुत्र बना लिया। फिर उन्होंने भवनारायण को भगवान विष्णु के पास भेजा जिन्होंने अपनी नाभि में उगे कमल की नाल के रेशे उसे दिए। भवनारायण ने 101 पुत्रों को गोद लिया जिन्होंने वस्त्र बुनने की कला अपनाई और देवताओं और मनुष्यों के लिए इस दिव्य वस्त्र की आपूर्ति करने लगे।
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आन्धप्रदेश के पद्मशाली और देवांग बुनकर इस कथा में विश्वास करते हैं और स्वयं को ऋषि मार्कण्डेय का वंशज मानते हैं। आज भी वे कपड़ा बुनते समय स्वयं को ईश्वर से जुड़ा हुआ अनुभव करते हैं।
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लगभग 400 वर्ष पूर्व आंध्र प्रदेश के यह दो महत्वपूर्ण बुनकर समुदाय कृष्णदेव राय द्वारा शासित विजयनगर साम्राज्य के नगर कांजीवरम चले गए थे। इस नगर के मंदिर की वास्तुकला और सुंदरता से प्रेरित होकर, बुनकरों ने अपनी बुनाई में इस अभिकल्पना में उसे साकार किया। कांजीवरम की बुनावट में कांचीपुरम के मंदिरों के स्तंभों की झलक मिलती है।
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कांजीवरम की साड़ियां शहतूती रेशम से बनती हैं जो विशेष रूप से बेंगलुरु से आता है और सोने और चांदी की जरी गुजरात से आती है।
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कांजीवरम साड़ियों में जिन पशु पक्षियों की आकृतियां उकेरी जाती है वे हैं अन्नम् (हंस) इरुतलै पक्षी (दो सिर वाली चील), किली (तोता), मयिल (मयूर), सिंह, याली (सिंह, हाथी और घोड़े से मिलकर बना विचित्र पशु), मान (हिरण), मीन (मछली), यानै (हाथी), कुदिरै (अश्व), कुयिलकण्ण(कोयल के नेत्र) मयिलकण्ण (मयूर के नेत्र)।
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इरुतलै पक्षी जिसे संस्कृत में गण्डभेरुण्ड कहा गया है, वह एक दिव्य पक्षी माना जाता है जो अपने दो सिरों से सभी दिशाओं का निरीक्षण करता है। इसे शक्ति का प्रतीक माना जाता है। यह अपनी चोंच और पंजों में हाथियों को पकड़ने की क्षमता रखता है। मैसूर रियासत ने गंडभेरुंड को अपना राजचिन्ह बनाया था।
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याली की आकृति द्रविड़ मंदिरों के स्थापत्य और कांजीवरम साड़ी में सर्वत्र व्याप्त है। यह एक पौराणिक प्राणी है जिसे एक मिश्रित पशु के रूप में चित्रित किया जाता है जिसका धड़ सिंह का होता है और शेष भाग हाथी या अश्व का होता है। याली नवग्रहों में से एक बुध ग्रह का वाहन भी है। यदि आप दक्षिण भारत में मंदिरों के विशाल गोपुरम को ध्यान से देखेंगे तो आपको एक पंक्ति ऐसी मिलेगी जो याली को चित्रित करने के लिए विशेष रूप से तैयार की गई है। इसे ‘याली वरिसई’ कहा जाता है।
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इसके अतिरिक्त गोपुरम, कमल, गोदुमै (गेहूं), वड़ै पू या आति वड़ै ( केले का फूल), मल्ली मोग्गु (मोगरे की कली), कसकस कट्टम (खसखस के बीज), पनै मरम (ताड़ का पेड़), पुलियम कोट्टै कट्टम (इमली के बीज), मांगा (आम), तुतिरि पू (अतिबला या कंघी का फूल), कोडी विसिरि (पुष्प लता), पूचक्रम् (फूलों का चक्र), ताड़म्पू रेकु (केतकी के फूलों की रेखा) और रुद्राक्ष की आकृतियों से भी कांजीवरम की साड़ियों को सजाया जाता है।
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वर्ष 2008 में प्रिर्यदर्शन द्वारा निर्देशित कांचीवरम नामक तमिळ चलचित्र प्रदर्शित हुई थी जिसमें रेशम के स्थानीय बुनकरों की व्यथा और त्रासदी को उजागर हुई थी। इसने राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता।
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