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“तेरी बनाई रोटियां ढुंगड़ी लगती हैं”
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“वह क्या होता है”
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“जंगल में पत्थर पर बनाई रोटियां जो गोर चराने जाते हैं तब बनाते हैं”
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मैं समझ गया कि अच्छी रोटियां बनाने में अभी कुछ और कसर बाकी है। आटा अच्छे से गूंथ लेता हूं। लोइयां भी सही बना लेता हूं, रोटी गोल बेलकर तवे पर सेक तो लेता हूं किंतु रोटी पूरी फूलती नहीं। जरा सी फूली नहीं कि फुस्स हो जाती है।
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मां ने बताया कि बेलते समय पथरण अर्थात् सूखा आटा या खुश्का ज्यादा लगाने से रोटी अच्छे से फूलेगी।
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मां के सुझाव पर मैंने अमल किया और कुछ ही दिनों में मेरी रोटी ने आदिम युग से सभ्यता के युग का सफर तय कर लिया।
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बचपन में मां को रोटी बनाते देखना हम लोगों के लिए किसी करतब देखने से कम नहीं था। गीले आटे को मुक्के जड़ती हुई मां उसे अपनी हथेलियों में प्यार से सहलाकर छोटी छोटी लोइयों में ढालकर, फिर गोल गोल बेलते हुए तवे पर डालकर सेकती और गुब्बारे की तरह फुलाकर उसे टोकरी में रखती जाती। बीच बीच में वह पम्प वाले स्टोव में पम्प मारकर लौ भी बढ़ाती रहती। उसे देखकर रोटी बनाने की नकल हम भी करते थे। थोड़ा सा गुंथा आटा लेकर उसकी एक छोटी सी रोटी बनाकर तवे के किनारे पर रख देते थे। पर वह रोटी मां की बनाई रोटी की तरह फूलती नहीं थी। खाते हुए भी वह ऊंट के मुंह में जीरे जैसी ही थी। किंतु रोटी बनाने के पहले जतन के तौर पर तो उसे गिना ही जा सकता है।
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मुझमें और मेरे मझले भाई में पहली रोटी पर अधिकार जताने की होड़ मची रहती थी। हम कहते थे, “फर्स्ट रोटी इज़ माइन!” अंगरेज़ी में कहने से किसी बात का वजन बढ़ जाता है शायद इसलिए हम “पहली रोटी मेरी है” नहीं कहते थे। खैर पहली रोटी किसी के भी हिस्से आती रही हो, दूसरी को फूलकर तवे पर से उतरते देर नहीं लगती थी और तीसरी भी झटपट तैयार होने वाली होती थी। इसलिए सब एक साथ खाते थे सिवाय मां के जो सारी रोटियां बनाने के बाद खाती थी। हर बार आखिर में बचे आटे की बड़ी सी लोई बनाकर मां अपने लिए एक मोटी सी रोटी बनाती थी जिसे वह कढ़ाई में बची सब्जी के साथ ऐसे चटखारे लेकर खाती थी कि देखकर हमारे मुंह में पानी आ जाता था। वही साधारण सा खाना हमने भी तो खाया था। किंतु मां जिस अंदाज में खाती थी उसे देखकर लगता था कि कोई ऐसा स्वाद था जिससे हमारी जीभ वंचित रह गई थी। यही स्वाद मां की जीभ उन सभी सब्जियों में भी ढूंढ लेती थी जिनसे बचपन में मुझे चिढ़ थी जैसे तोरइ, लौकी, बैंगन, टिंडे, चौलाई। इन सब्जियों का बहिष्कार करने पर मुझे मलाई में चीनी डालकर रोटी पर रखकर खाने को दी जाती थी, मैं घर में सबसे छोटा जो था न। मेरे लिए तो यह फायदे का ही सौदा था। इसलिए मलाई रोटी खाने की मेरी आदत काफी बड़े होने तक बनी रही। फिर न जाने कैसे एकदम से छूट गई। जिन सब्जियों से मुझे चिढ़ थी उनकी तरफ भी मैंने दोस्ती का हाथ बढ़ा लिया या कहूं कि उन्हें मुंह लगा लिया।
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वे किफायत के दिन थे इसलिए मां अक्सर पूछ लिया करती थी, “कितनी रोटी खायेगा?” मैं और मेरा सबसे बड़ा भाई सटीक जवाब दिया करते, किंतु मेरे मझले भाई की प्रतिक्रिया कूटनीतिक होती, “जितनी सब्जी होगी उतनी रोटी खाऊंगा।” मां भड़क जाती, आंखे तरेर कर कहती “इसकी तो नीयत कभी भरती ही नहीं है।” मां ताड़ जाती कि वह अपनी भूख के प्रति आश्वस्त नहीं है और सब्जी धीरे धीरे खत्म करते हुए ज्यादा ही खाने वाला है। कभी कभी जब हम दोनों की भूख भी अपनी मर्यादा भूल जाती तो मां हम सब पर झल्ला उठती, “क्या रे, पेट है कि इंडिया गेट!” ऐसे अवसरों पर वह एक ही नज़ीर पेश करती थी, “रामप्रसाद की पत्नी तो सबके लिए गिनकर रोटी बनाती है और एक तुम लोग हो कि खाकर उठने का नाम ही नहीं लेते!”
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बड़ा हुआ तो दो जून की रोटी कमाने के लिए घर से दूर रहते हुए स्वयं रोटियां बनाकर खाई। किंतु जब लगभग सात वर्षों तक कोयम्बत्तूर में रहा तब तो जैसे रोटी से नाता ही टूट गया। केले के बड़े पत्ते पर बिखरे षट् रसी सापाड़ (भोजन) का वैभव सीधी सादी रोटी की तलब को दबा देता था। वहां जमकर सादम् (चावल),सांबर,रसम,पायसम, इडली,दोसा,बिरियानी ही खाई।
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कोरोना के बाद जब नियति ने स्थायी रूप से जयपुर ही रहने को विवश कर दिया तब थाली में फिर से रोटी सज गई। अब रोटी बना भी रहा हूं, खा भी रहा हूं और वृद्धा मां को खिला भी रहा हूं। जो रोटी बनाने में निपुण हो जाते हैं उन्हें “रोटी कौन बनाकर देगा?” जैसे सवाल से जूझना नहीं पड़ता।
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कुछ वर्ष पहले जैसलमेर जाना हुआ तो वहां राम रोट खाने का अवसर भी मिला। इस विशाल और मोटी रोटी को चरवाहे मिलकर बनाते और खाते हैं। यह भी एक निराला अनुभव है जो आपको होटल,रेस्तरां, ढ़ाबे या घर पर भी नहीं मिल सकता।
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