इस वर्ष भी मेरे तमिळ मित्र रंजीत ने मुझे मीनभरणी उत्सव में आने का निमंत्रण दिया है। अब तक दो बार मैं इसे देख चुका हूं। भौगोलिक दूरी के बावजूद तीसरी बार वहां जाने के लिए मेरे उत्साह में कोई कमी नहीं है। यह उत्सव है ही ऐसा। इसकी परम्परा और रीतियां भक्तों और पर्यटकों को दूर दूर से यहां खींच लाती हैं।
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मीनभरणी उत्सव प्रतिवर्ष मलयालम के कुंभम और मीनम माह अर्थात् मार्च और अप्रैल में कोडुंगलूर में श्री कुरुम्बा भगवती मंदिर में आयोजित होता है। इस उत्सव को कण्ण्गी के मिथक से भी जोड़कर देखा जाता है जिसकी कथा संगमकाल के तमिळ ग्रंथ सिलप्पदिकारम (टूटा नूपुर) में मिलती है। कण्ण्गी एक पतिव्रता स्त्री थी जो पूहार में रहती थी। उसका पति माधवी नाम की नर्तकी पर आसक्त था। जब कोवलन को माधवी के छल और अपनी पत्नी के सच्चे प्रेम का अनुभव हुआ तो यह दम्पति पूहार छोड़कर राजा पाण्डियन के नगर मदुरै चले गए। यहां पहुंचकर गुजारा करने के लिए अपनी पत्नी की पायल बेचने का प्रयास करते हुए कोवलन पर कोई धूर्त सुनार रानी की पायल की चोरी का मिथ्या आरोप लगा देता है। राजा कोवलन को मृत्युदण्ड दे देता है। तब क्रुद्ध होकर कण्ण्गी राजसभा में पहुंचकर अपनी दूसरी पायल दिखाती है। वह अपना स्तन काटकर नगर की ओर उछाल देती है और उसके शाप से नगर जलकर भस्म हो जाता है। यह देखकर राजा पाण्डियन की भी मृत्यु हो जाती है। माना जाता है कि इस मंदिर के गर्भगृह के पूर्वी भाग में किसी गुप्त कक्ष में कण्ण्गी की अस्थियां रखी हैं। केरला के दूसरे मंदिरों में जहां नम्बूदिरी और तुलु मूसद ही अकेले पुरोहित होते हैं, यहां इस उत्सव में अडिगल पुरोहित होते हैं। सिलप्पदिकारम के रचियता इलांगो भी अडिगल ही थे।
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मीनभरणी उत्सव का प्रारंभ कोड़िकल्ल मूडल अर्थात् मुर्गे की बलि की रस्म से होता है। कण्ण्गी के मिथक के अनुसार कण्ण्गी को संतुष्ट करने के लिए राजा पाण्डियन ने मदुरै के एक हजार सुनारों का वध करवाया था। मुर्गे की बलि संभवत: इसी का प्रतीक है। कई लोग इसे काली द्वारा दारिकासुर के वध से जोड़कर ही देखते हैं। अब बलि पर रोक लगा दी गयी है। इसलिए प्रतीक रूप में मुर्गा और लाल कपड़ा चढ़ाया जाता है।
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इसके बाद भरणी नक्षत्र से एक दिन पहले कावुतीण्डल का आयोजन होता है। सुनार जाति का एक पुरुष तट्टन मंदिर की सात परिक्रमाएं करता है और मंदिर की घंटी बजाकर कावुतीण्डल को प्रारंभ करता है। वृक्षों पर ध्वजा टांकने के बाद मंदिर के द्वार सबके लिए खोल दिए जाते हैं और उत्सव प्रारंभ हो जाता है। इसमें कोमरम अथवा वेलिच्चपाड़ (आवेशयुक्त भक्त) लाल परिधान में खड्ग लहराते हुए देवी के सम्मान में उत्मत्त होकर नृत्य करते हैं। वेलिच्चपाड़ रणचंडी का प्रतीक होते हैं और उनके बाकी साथी गीत गाकर उसका आह्वान करते हैं। आविष्ट भक्त संगीत और कोट्टुवड़ी छोटी लकड़ियों की लय पर थिरकते हैं। मंदिर का परिवेश उत्तेजना से भर जाता है।
देवी को प्रसन्न करने के लिए गाए जाने गीत भरणीपाट्ट अश्लील होते हैं:
तानारो तानारो तक
तन्नेन्दोरु कुण्णयाड़ो
कोडुंगल्लूरम्मये पण्णणमेंगिल
कोडीमरम पोलोरु कुण्णा वेणम्
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अर्थात्
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तानारो तानारो तक
तुम्हारा लिंग कैसा है
देवी से संभोग करने के लिए
ध्वजास्तंभ जैसा लिंग चाहिए।
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कई गीतों में देवी की अदम्य वासना, उसकी योनि की कल्पनातीत प्रकृति और काल्पनिक यौन मुद्राओं का वर्णन होता है। भक्तों मानते हैं कि अश्लील गीत न गाए जाने से देवी रुष्ट हो जाएगी। हर समूह में एक मुख्य गायक होता है और बाकी सब उसका अनुसरण करते हुए गाते हैं।
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कावुतीण्डल से पूर्व भक्त मंदिर की छत पर पल्लीमडम की दिशा में जहां मान्यता है कि देवी विश्राम करती है, चढ़ावा उछालते हैं। चढ़ावे में जीवित मुर्गा, काली मिर्च, हल्दी, नारियल, और सिक्के होते हैं। कावुतीण्डल के दौरान भक्त मंदिर के चारों ओर दौड़ते हुए उसकी छत पर बांस की लकड़ी से प्रहार करते हैं और चढ़ावा चढ़ाते हैं। मंदिर के उत्तरी द्वार में एक दीप जलाया जाता है जो दारुकासुर पर भद्रकाली की विजय का प्रतीक होता है।
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आविष्ट भक्त खड्ग से अपने मस्तक पर आघात करते हैं। रक्तस्राव की रेखाएं उनके चेहरे को वीभत्स बना देती हैं। हालांकि बाद में घाव पर हल्दी लगा दी जाती है।
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अश्वति के दिन त्रिचन्दन चार्त का आयोजित होता है। दोपहर से पहले संध्या के भोजन तक के अनुष्ठानों के बाद, मंदिर को धोया और साफ किया जाता है, देवी के अलंकार हटा दिए जाते हैं, और त्रिचंदन चार्त की तैयारी शुरू हो जाती है। कहा जाता है कि यह पूजा अश्विनी देवताओं की उपस्थिति में की जाती है। इसके बाद यदि मंदिर बंद रहता है तो छठे दिन ही मंदिर खोला जाएगा। तब तक, पूजा गुप्त होती है। इसके लिए पूर्वी द्वार से केवल पैर ही प्रवेश करते हैं। शंकराचार्य द्वारा स्थापित महामेरु श्री चक्र इसी के अंदर लगा है। यह देवी का शक्ति केंद्र है। पूर्व में, शिव, मंदिर के संरक्षक, वसुरीमाला और घंडाकर्ण हैं।
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इस उत्सव को कृषि की ऊर्वरता से भी जोड़कर देखा जाता है। मीनभरणी के ठीक बाद आने वाले विशु उत्सव से नए वर्ष का प्रारंभ होता है।
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