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अभिनेता पृथ्वीराज सुकुमारन की आगामी फिल्म आडजीवितम नजीब के आंसुओं की स्याही से लिखा गया त्रासदी का एक वास्तविक दस्तावेज़ है जो इसे सभी काल्पनिक कृतियों से निराला बना देता है। खाड़ी देशों में प्रवासी मलयालियों के जीवन और संघर्ष पर मलयालम सिनेमा में कई चलचित्र बने हैं जैसे आयशा, गदम्मा, म्याऊं, अरबीकथा, डायमंड नेकलेस, जेकोबिन्टे स्वर्गराज्यम्, मोमो इन दुबई, टेक ऑफ, और ममूटी अभिनीत पदेमारी जिसने 2015 में सर्वश्रेष्ठ मलयालयम चलचित्र का पुरस्कार भी जीता। इस क्रम में आडजीवितम एक नवीनतम रचना है।
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परदेस जाकर पैसा कमाने की अभिलाषा अनगिनत भारतीयों के मन में होती है। लोग इस संभावना को अपनी हथेली की लकीरों में तलाशते हुए ज्योतिषियों के पास भी जाते हैं। पर कुछ के लिए उनका दुर्भाग्य मानों विदेश में ही उनकी प्रतीक्षा कर रहा होता है। केरला के आराट्टपुड़ा का नजीब भी ऐसा ही एक बदनसीब था।
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खाड़ी देश प्रवासी मलयालियों की पसंदीदा जगह है। वहां मलयाली स्थानीय अरब लोगों के बीच भारतीय के बजाय “मालाबारी” नाम से अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। खाड़ी देश ही नहीं बल्कि युद्धरत देश जैसे फलस्तीन, सीरिया, यूक्रेन और सत्ता की चुनौती से जूझते देश जैसे सोमालिया, सिएरा लियोन, और अफगानिस्तान भी मलयालियों के लिए अगम्य नहीं रहे।
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1993 में नजीब सऊदी अरब गया इस उम्मीद के साथ कि वहां उसे किसी सुपरमार्केट में सेल्समेन की नौकरी मिल जाएगी। उसके एजेंट ने उसे यही विश्वास दिलाकर वहां भेजा था। वीजा पाने के लिए उसे अपनी जमीन भी बेचनी पड़ी। वहां जाकर उसे अहसास हुआ कि उसके साथ धोखा हुआ है। उसे विमानतल से बहुत दूर कहीं एक निर्जन मरुस्थल में बकरियां चराने का काम सौंपा गया। यहीं से उसका नारकीय जीवन प्रारंभ हुआ जिसे आडजीवितम की उपमा दी गयी है। यह चलचित्र इसी नाम के लोकप्रिय उपन्यास पर आधारित है। आडजीवितम् का अर्थ है बकरी का जीवन। मलयालम और तमिळ में आड का अर्थ भेड़ या बकरी होता है। इसे लेखक बेन्यामिन ने 2008 में लिखा था। अपने भावुक और यथार्थवादी चित्रण के कारण इसे बहुत प्रशंसा मिली और यह कई विद्यालयों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा भी है।
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नजीब ने 700 बकरियों के चरवाहे के रूप में दो वर्षों तक नारकीय जीवन जिया। उसका प्रत्येक दिन भय, पीड़ा और निस्सहायता से भरा हुआ था। दूरबीन से झांकती उसके आततायी मालिक की आंखें बचकर भागने की उसकी इच्छा का गला घोंट देती थी। खाने के लिए उसे मार के अतिरिक्त बासी कुबूस (अरबी रोटी) मिलती थी जिसे वह बकरी के दूध में भिगोकर ही निगल पाता था। उसे नहाने धाेने के लिए पानी नहीं मिलता था और पहनने के लिए भी उसके पास सिर्फ एक चोगा ही था। उसकी दाढ़ी और बाल बेतरतीब बढ़ते गये। मलिन शरीर और वस्त्रों से उठने वाली दुर्गन्ध से उसे तब तक मिचलाहट होती रही जब तक कि वह उसका अभ्यस्त नहीं हो गया।
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अपने परिवार से उसके संपर्क की कोई संभावना नहीं थी। घर छोड़ते समय उसकी पत्नी आठ माह की गर्भवती थी। गर्भवती भेड़ों और नवजात मेमनों को देखकर उसे अपनी पत्नी व बच्चे की याद आती। अपने बच्चे को देखने के लिए तरसती उसकी आंखे उसकी धुंधलाती उम्मीद से लड़ती रहती थीं।
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इतनी तकलीफें देकर दुर्भाग्य को भी जैसे उस पर दया आ गयी और आखिरकार 1995 में एक रात नजीब को अपने अरबाब की कैद से भागने का अवसर मिल ही गया। जान बची तो लाखों पाये हालांकि कमाई के रूप में उसे एक धेला भी नहीं मिला। उलटे काम छोड़कर भागने की सजा के रूप में उसे स्थानीय कानून के अनुसार कई माह का कारावास भी भुगतना पड़ा। पर जिस यातना के चंगुल से निकलकर वह भागा था उसकी तुलना में कारावास भी कहीं बेहतर था क्योंकि वहां उसे भोजन, पानी और विश्राम मिलता था। उसे अपनी इंसानों वाली जिन्दगी वापस मिल गयी थी।
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मलयालम में कहावत है “एल्ल मुरिये पणि एड़ुत्ताल पल्ल मुरिये तिन्नाम्” अर्थात् हड्डी टूटने तक काम करेंगे तो दांत टूटने तक खा पाएंगे। इसलिए आडजीवितम कहानी भले ही नजीब के भारत लौटने के साथ समाप्त हो जाती है, उसके वास्तविक जीवन की कहानी इसके बाद भी जारी रही। उसने अपना भाग्य फिर से आजमाया और पुन: खाड़ी देश बहराईन गया। यहां रहते हुए उसकी मुलाकात लेखक बेन्यामिन से हुई और आडजीवितम का दर्दनाक अनुभव शब्दों में साकार हो पाया।
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पुस्तक पढ़ने की रूचि से कहीं अधिक फिल्म देखने की ललक होती है इसलिए इस उपन्यास पर बने चलचित्र को देखने की आतुरता का अनुमान लगाया जा सकता है।
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केरला में गल्फ बूम का सूत्रपात 1970 में हुआ। इससे लाखों युवाओं को खाड़ी देशों में रोजगार मिला। उनके प्रेषित धन ने केरला का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कायापलट कर दिया और केरला को एक धनादेश (मनीआर्डर) अर्थव्यवस्था दी। एक अरसे तक दहेज के बाद जिस चीज की मांग सबसे ज्यादा होती थी, वह था खाड़ी देश का वीज़ा। अपने प्रवासी पतियों से बिछुड़ी पत्नियों के अवसाद को मनोवैज्ञानिकों ने “गल्फ वाइफ सिंड्रोम” नाम भी दिया। पैसे कमाने के लिए खाड़ी देश जाकर लापता हुए लोगों के लिए मलयालम चैनल कैरली टीवी पर प्रवास लोकम नाम से एक लोकप्रिय साप्ताहिक कार्यक्रम भी प्रसारित होता था। सैकड़ों लोग उनसे विदेशी कारागारों, श्रमिक शिविरों और देहव्यापार से बचाए जाने की मिन्नतें करते हुए पत्र लिखते थे। पारिश्रमिक न दिए जानें की शिकायतें तो अनगिनत थी।
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आडजीवितम के बहाने मलयालम के बारे में भी कुछ दिलचस्प बात हो जानी चाहिए। मलयालम में ञ हिन्दी की भांति उपेक्षित नहीं है। मलयालम में “मैं” को “ञान” और “हम” को “ञंगल” कहते हैं। इस प्रकार ञ उत्तम पुरुष की अभिव्यक्ति में प्रयुक्त होता रहता है। मलयालम में ञ के उच्चारण को अंगरेजी में nj से अभिव्यक्त किया जाता है। बेन्यामिन वस्तुत: अंगरेजी नाम बेन्जामिन ही है किंतु मलयालम के लहजे के चलते इसका उच्चारण में दिलचस्प बदलाव आ गया है। इसलिए बेन्जामिन “Benjamin” न रहकर “Benyamin” बन गया। कुछ ऐसा ही कुरिंजि पुष्प के नाम के साथ भी हुआ है। तमिळनाड और केरला पड़ौसी राज्य हैं और तमिळ और मलयालम में कई समानताएं हैं। फिर भी बारह वर्षों में एक बार खिलने वाले जिस फूल को तमिळ में कुरिंजि कहते हैं मलयालम में उसी को कुरिञि कहते हैं। कारण है अंगरेजी की वर्तनी Kurinji. जब हम एक दूसरे की भाषाएं सीखने के बजाय अंगरेजी को जोड़ने वाली भाषा मानकर आंख मूंदकर उसके इशारों पर नाचते हैं तो ऐसी विसंगतियां जन्म लेती हैं। वैसे आडजीवितम को भी आदुजीवितम लिखने पढ़ने वालों की कमी नहीं है।
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