हाल ही में प्रदर्शित चलचित्र आवेशम ने मलयालम के एक भक्तिगीत करिंगालियल्ले.. के बोलों को पुन: लोकप्रिय कर दिया। इस गीत की पृष्ठभूमि में विरोधाभासी भावों की मुखमुद्रा बनाकर इंस्टाग्राम पर कई रीलें बनीं और क्षणिक मनोरंजन के चलन में इसका गंभीर अर्थ गैरमलयाली लोगों पर उजागर नहीं हो पाया। जब गुजराती भजन “जूनाड़ा मा जावूं के दामा कुंड नहावूं, हाल तने हाल सौराष्ट्र बतावूं” फास्ट फॉरवर्ड रूप में इंटरनेट पर ट्रेंड हुआ तो लोग भक्तिभाव से ओतप्रोत होने के बजाए, हंस हंस के लोटपोट हो रहे थे। मनोरंजन की भेंट चढ़ कर एक सुंदर कृति की विकृति दुर्भाग्यपूर्ण है। उसके अर्थ की गरिमा का स्तर निरे मनोरंजन से कहीं ऊंचा है। इसलिए कण्णन मंगलत द्वारा रचित मलयालम के इस भक्तिगीत के अर्थ से अवगत होना भी आवश्यक है।
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वेदालमेरियालि वालुक देविये
अरमकलाडियुलञ्ञाडि वाल्क वाल्क तम्बुराट्टिये
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गहनों से सजी देवी की जय हो जिसने
राजसभा में नृत्य किया। स्वामिनी की जय हो।
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करिंगालियल्ले कोडुंगल्लूर वाड़ण पेण्णाल
कोडुवालेडुत्त चुडु दारिका चोरयिल नीराड
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कोडुंगल्लूर पर शासन करने वाली वह काले रंग की काली है न
जो हाथ में तलवार लिए दारकासुर के रक्त से स्नान करती है।
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एरिवेट्टिय वट्ट मुलको पेण्णे निन मनस्स
जडा केट्टिय कारमुड़िक्केन्दिनि मुल्लप्पू मलर
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तुम्हारा हृदय तो सूखी लाल मिर्च जैसा तीखा है
फिर तुम अपनी जटाओं को चमेली के फूलों से क्यों सजाती हो
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कलि तुल्लिय काली तन कालिल तंग पोन चिलम्ब
तुडिकोट्टिय पाणन्टे पाटिल अम्मे नी अड़ंग
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रौद्र रूप में नृत्य करती हुई काली के पैरों में सोने की पायल है
हे मां तुम्हें ढ़ोल वाले के गीत से सुकून मिलता है
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दिक्कुकल नालेट्टुम पोट्टियडरुम पड कोप्पुकल कूडून्ने
ई कलिकालत्तिन पोरक्कलि तीर्कान श्री नेरक्कली नी वेणम
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चारों दिशाओं में सेनाएं युद्ध कर रही हैं
संघर्ष के इस युग के उपद्रव को शांत करने के लिए हमें एक देवी नेरकाली चाहिए
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तुडित्तालत्तिलाडिय तान्डे ती मकले श्रीकुरुम्बे
तुम कुरुम्ब की पुत्री हो
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वरिनेल्लरिञ्ञ पनम पायिल उणक्की आट्टुम्पोल
रणभूतलत्तिल कोडुम वैरिये कालनेरिञ्ञोले
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ताड़ के पत्तों में सुखाये गये धान के दानों की तरह
रणभूमि में तुम दुष्ट शत्रुओं को मौत की खाई में धकेल देती हो
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तलयोडुकल आडि उलञो पेण्णे निन गलत्तिल
अलंकारामिताणेडि पोन्ने निन्डे मेयक्करुत्त
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तुम्हारे गले में मुण्डमाला लहराती और नृत्य करती हैं
ये गहने तुम्हारी सुनहरी देह की शक्ति को दर्शाते हैं
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पुरी कत्तिय चारमेडुत्तु पेण्णिन कण्णेडुत्तु
नूरायिरम पोन्नूरुच्चालुम माट्ट निन्नड़क
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तुम अपने नयनों को जलाए गये नगर की राख से सजाती हो
सैकड़ों हजार स्वर्ण मुद्राएं भी तुम्हारे सौंदर्य से स्पर्धा नहीं कर सकतीं हैं
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पदमुन्निय नाट्य विलासम् पकयोडे नी आडी कलाशम्
लयात्मक पदसंचालन के साथ तुम अंत तक उल्लासपूर्वक नृत्य करती हो।
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वलमकाल चिलम्बूरी उडच्चिंग तेकोट्ट पोन्नोले
मुडियाडिय काविलतेरिट्ट कान्ति पकरन्नोले
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दाहिने पैर की पायल तोड़कर तुम दक्षिण की ओर चली गईं,
पवित्र स्थल में प्रवेश करते हुए अपने बाल लहराते हुए तुम प्रकाश फैलाती हो
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इद पोलोरु पेणमणिवेणम मकलायावल वन्निरंगेणम
नेरिकेडुकल वेट्टियरिन्यवल आडितेलीयेणम नेडु नायकियायवल नाडिन कणमणियाकेणम
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हम चाहते हैं कि ऐसी ही एक स्त्री पुत्री के रूप में जन्म ले जो अन्याय दूर करे
और अपने नृत्य से शासन करे वह एक महान नेत्री और राष्ट्र का अभिमान बने।
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केरल के त्रिशूर जिले में स्थित कोडुंगल्लूर एक प्राचीन भारतीय नगर है जिसका उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है। पतंजलि और कात्यायन ने भी अपने काव्य में इसका उल्लेख किया है। कभी इसका संस्कृत नाम महोदयपुरम था। कोडुंगल्लूर की व्युत्पत्ति इसके अन्य प्राचीन नाम कुडकल्लूर (कुड +कल +ऊर)से मानी जाती है जिसका अर्थ है वह समुद्री नगर जहां सूर्य ढलता है। तमिळ और यूनानी साहित्य में इसे मुचिरि कहा गया है। यहां श्री कुरुम्ब भगवती देवी का मंदिर है। यह केरल के 64 भद्रकाली मंदिरों में सबसे मुख्य है। महाकवि कुञ्ञीकुट्टन तम्पूरन ने कोडुंगल्लूर काली के रौद्र स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है “वाड़ुम वट्टकयुम त्रिशूलवुमहो खट्वांगवुम भूरिगरू वाड़ुम दारिकाशीशवुम फणीप्पनुम नलघंटयुम खेटवुम” अर्थात् वह तलवार, खप्पर, त्रिशूल, खट्वांग, दारिकासुर के शीश, सर्प, घंटे और खड्ग से सज्जित है।
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कोडुंगल्लूर काली को प्रसिद्ध तमिळ संगम काव्य सिलप्पदिकारम् की नायिका कण्णगी माना जाता है। मदुरै के राजा ने कण्णगी के पति को रानी की सोने की पायल (शिलम्ब) चोरी करने के झूठे आरोप में प्राणदंड दे दिया। इससे क्षुब्घ कण्णगी ने राजसभा में आकर अपनी सोने की पायल (शिलम्ब) दिखाकर अपने पति की निर्दोषता को प्रमाणित किया और अपने दाहिने स्तन को काटकर फेंकते हुए मदुरै नगर को जलकर भस्म होने का शाप दिया। उक्त गीत की पंक्तियां “पुरी कत्तिय चारमेडुत्तु पेन्निन कन्नेडुत्तु” और “वलमकाल चिलम्बूरी उडच्चिंग तेकोट्टे पोनोले” इसी प्रसंग का उल्लेख करती हैं। अमृतलाल नागर ने सिलप्पदिकारम् के कथानक पर हिन्दी में सुहाग के नूपुर नामक उपन्यास भी लिखा है।
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कण्णगी के मिथक के क्रम में ही बढ़ते हुए कोडुंगल्लूर काली की आवेशपूर्ण उपासना से जुड़ा एक अनोखा पर्व है मीना भरणी। इसे मलयालम माह मीनम अर्थात् मार्च या अप्रेल के आसपास मनाया जाता है। उत्सव का प्रारंभ कावु तीण्डल नामक रीति से होता है जिसमें सुनार जाति का पुरुष (तट्टन) मंदिर की सात परिक्रमाएं करके घंटा बजाता है। इस उत्सव के पुरोहित नम्पूतिरि ब्राह्मण न होकर अडिगल समुदाय के लोग होते हैं। सिलप्पदिकारम् का रचयिता इलांगो भी अडिगल ही था। इस उत्सव में जुटे दलित श्रद्धालुओं का समूह मद्योन्मत्त होकर नितांत अश्लील गीत गाते हुए देवी को शांत करते हैं। ये गीत भरणी पाट्ट या तेरीपाट्ट कहलाते हैं और संभवत: पंचमकारम पूजा के एक घटक मैथुन का ही रूप हैं।
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