दोपहर को डाकिया मां के हाथ में लिफाफा थमा गया। मां उसे मुझे देते हुए बोली, “देख तो, आधार कार्ड आ गया है शायद। लिफाफा खोलकर देखा तो मेरी बांछे खिल गयीं। पिछले दो वर्षों की मेरी दौड़ धूप सफल हो गयी। मां का आधार कार्ड उनके मौलिक नाम व जन्मतिथि के साथ अद्यतनित (updated) हो गया था। इस नाम को सभी दस्तावेजों में सही करवाने को लेकर जितने धक्के मुझे खाने पड़े उसके चलते मैंने मन ही मन इसकी गुमशुदगी का इश्तहार शोरे गोगा जारी कर दिया था।
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“पवित्री! तुम जहां कही भी हो, घर वापस आ जाओ। तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। मां तुम्हारी राह देखती है। ”
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विश्व के महान साहित्यकार शेक्सपीयर और मेरी अनपढ़ माताजी का कम से कम एक विचार तो बिल्कुल समान है कि नाम में क्या रखा है? शेक्सपीयर ने जो कहा भर है उसे मेरी माताजी अपने जीवन में अब तक चरितार्थ करती आयी है। व्यक्ति निरक्षर हो, दुर्लभ नाम वाला हो और अपने नाम के प्रति घोर उदासीन भी हो तो उनके स्वजन कैसी कठिनाइयों का सामना करते हैं इसका अनुमान मुझे पिछले दो वर्षों में बखूबी हो गया है।
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अपने नानाजी से मेरा परिचय अधिक नहीं रहा किंतु नामों के विषय में वे अवश्य एक सुरुचिपूर्ण व्यक्ति रहे होंगे यह मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं। इसका प्रमाण अपनी सभी पांचो पुत्रियों के लिए उनके रखे नाम हैं जो कम से कम उस समय तो दुर्लभ ही थे। मेरा यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मेरी माताजी का नाम अब भी एक दुर्लभ नाम है। और यही कारण भी है कि आज मैं उसके बारे में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ।
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इस संसार में जन्म लेने के पश्चात माता पिता और संबंधियों के स्नेह के साथ ही हमें एक नाम भी मिलता है जो आगे चलकर हमारी सामाजिक पहचान बन जाता है। तभी तो नाम से जुड़े कई मुहावरे व शब्द हमें सुनने को मिलते हैं: नाम कमाना, नाम ऊंचा करना, नाम मिट्टी में मिलना, नामचीन, बदनाम, बेनाम, गुमनाम, राम से बड़ा राम का नाम, नाम मात्र का, नामलेवा इत्यादि। व्यक्ति की प्रतिष्ठा उसके नाम के साथ भी जुड़ी होती है इसलिए अपने नाम की उपेक्षा करना आसान नहीं है।
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तो मेरे नानाजी ने मेरी माताजी का नाम रखा पवित्री। वह इस नाम का अर्थ जानते भी थे या नहीं यह बताने के लिए वे अब इस संसार में नहीं हैं किंतु वे मेरी मां को पवित्रा कह कर भी बुलाते थे। स्नेहपूर्वक मेरी मां को पब्बी कहकर भी बुलाया जाता था। क्योंकि मां कभी पाठशाला गयी नहीं इसलिए उनका औपचारिक नाम स्वयं उनके वयवहार में भी नहीं आया। विवाह के पश्चात भी न्यूनाधिक यही स्थिति रही।
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पिताजी के असमय देहांत के पश्चात जब सारे उत्तरदायित्व मां के कंधो पर आ गए तब उनके नाम को जगह जगह उल्लिखित होने का अवसर मिला। मां अपने नाम को सही ही बताती थी किंतु अनसुना नाम होने की वजह है लोग उसकी सही वर्तनी का अनुमान नहीं लगा पाते थे और उसे पार्वती का ही भ्रष्ट उच्चारण समझ लेते थे। गनीमत था कि पिताजी ने अपने कागजातों में उनका सही नाम दर्ज करवाया था। किंतु उनके बाद जहां कहीं भी मां को अपना नाम बताने की जरूरत पेश आयी उनके सही नाम बताने के बावजूद उसे गलत ही लिखा गया। इसका दोष जितना मां के अपने अज्ञान का रहा उतना ही उन लोगों की अवहेलना का भी था जो इसका अर्थ नहीं जानते थे। एक अन्य कारण अपनी कठोर नियति को लेकर मां का रोष भी रहा होगा, “अगले जनम मोहे पवित्री न कीजो।” अस्तु हम लोगों ने भी उनका नाम पार्वती ही रख लेने पर सहमति बना ली। कुछ कागजातों में अब तक उनका यही नाम चलता रहा।
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माध्यमिक कक्षा में पंहुचने पर जब मेरा रुझान संस्कृत की ओर होने लगा और मुझ पर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी की धुन सवार हो गयी तो मां के नाम की सुंदरता ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास की किसी नायिका जैसा नाम। पवित्री एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है कुश की बनी अंगूठी जिसे पूजा में पहना जाता है। हालांकि तब मुझे लगता था कि उनका नाम पवित्रा रहा होगा जैसा कि मेरे नाना उन्हें बुलाया करते थे। पवित्र का स्त्रीलिंग पवित्रा होने से यह नाम संस्कृतमूलक भी है। दक्षिण भारत में इस तरह के नाम होते भी हैं। उत्तर भारत में ऐसा नाम अब भी कम ही सुनने में आता है।
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अपने नाम को लेकर इतने भ्रम की स्थिति का मुख्य कारण मां की अपनी निरक्षरता ही थी जिसका निवारण करने के प्रयास में उनकी रूचि न के बराबर रही। अपने कांपते हाथों से हस्ताक्षर के रूप में जब मां पssविssत्रीss देssवी लिखकर संतोषपूर्वक उसके ऊपर शिरोरेखा खींच लेती थी तो भारत का प्रौढ़ साक्षरता अभियान अपनी सफलता पर झूम उठता था। इन पंचाक्षरों के अतिरिक्त मां ने कभी कोई छठा अक्षर लिखने का प्रयास नहीं किया। यह पांच अक्षर भी मां ने प्रौढ़ साक्षरता अभियान से जुड़ी किन्हीं दीदी के जोर देने पर सीख लिए थे। पूरे आत्मविश्वास के साथ हस्ताक्षर करने लायक अभ्यास भी उन्होंने कभी नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर ही हस्ताक्षर करती थी, बस। अक्षर जोड़ कर वे पढ़ भी सकती थी किंतु अपने न्यूनतम ज्ञान को बढ़ाकर कुछ और सक्षम होने के उत्साह का उनमें सर्वथा अभाव ही रहा। कदाचित् स्वयं को मिलने वाली सहानुभूति से वंचित होने के भय ने उन्हें अपनी साक्षरता को निखारने नहीं दिया। जब कोई महिला दैन्यपूर्वक अपने अनपढ़ होने की दुहाई दे तो प्राय: अकर्मण्य सरकारी बाबू भी स्वयं फार्म भर देते हैं। यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया में मां का नाम अलग अलग ढंग से लिखा जाता रहा। स्वयं मां को भी इसकी खास परवाह नहीं रही।
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यह क्रम यूं ही चलता भी रहता यदि आधार कार्ड बनने प्रारंभ न होते। मेरी हार्दिक इच्छा थी कि कम से कम आधार कार्ड में मां का सही नाम दर्ज हो। नाम के साथ ही उनकी जन्मतिथि को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं थी। इन बातों के लिए दौड़ धूप करने के लिए पर्याप्त समय के अभाव और मां की अपनी उदासीनता के चलते कई वर्षों तक यह संभव न हो सका। कोरोना के बाद जब घर से काम करने की नौबत आयी तो मैंने इस काम को निपटाने का निर्णय लिया।
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काफी दौड़ धूप के बाद मां को अपना वास्तविक नाम पवित्री और जन्मतिथि 18 दिसम्बर दोंनो मिल गए। इसके लिए मैं अपनी ही पीठ थपथपा सकता हूं।
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कुछ समय पहले जब मैं अपने मित्र के साथ हिमाचल घूमने गया तो वहां उसके दूसरे मित्र ने जो कि एक यूवा पुरोहित भी है ने बातों ही बातों में कहा कि पता है पूजा में पहनी जाने वाली कुश की बनी अंगूठी को क्या कहते है? पवित्री । मैं गदगद हो गया, “हे विप्रदेव, धन्य हो! मैं किसी से तो मिला जो मेरी मां के नाम के विषय में जानता है।”
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आशा है इस लेख को पढ़ने के बाद ऐसे लोगों की संख्या और बढ़ जाएगी।
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